Fentency
कहानी रिश्तों की--1
आज एक अरसे के बाद सोहन को जी भर के चोदने का मौका मिला था.
वैसे तो हम जब भी मिलते थे जहाँ भी मिलते थे, चूमा चॅटी
तो करते ही थे, पर आधी अधूरी चुदाई में वो मज़ा कहाँ
आज जब मैं उसके घर पहॉंची थी तो घर में सोहन और उसकी
आपा ही थे. लगता था की दोनों आपस में शुरू हुए ही थे की मैं
जा टाप्की.
"आज तो मज़ा आ गया, अरसे के बाद हम तीनों अकेले मिले हैं"
रिचा आपा ने कहा.
"सच बताओ, रिचा, क्या वाक़ई खुश हो या मन में गालियाँ दे
रही हो कि दाल भात में मूसर चंद कहाँ से आ गयी?" मैं
बोली.
"लैला, मूसर चंद नहीं, तू तो गहरी कश्ती है सोहन के पतवार
के लिए" रिचा ने तहेदिल से कहा.
और उसके बाद सोहन के पतवार कभी मेरी नाओ में और कभी रिचा
की नाओ में चप्पू चलाया. हम लोग रुके तब जब तीनों थक कर
चूर हो गये और मैं वापस घर आने के लिए निकल आई.
मैं रास्ते में सोचती आ रही थी सोहन के मज़ाक के बारे में.
वो अक्सर करता रहता था कि मैं अपने अब्बू की तन्हाई दूर करने की
कोशिश क्यों नहीं करती. पहले तो मुझे बहोत अटपटा लगता था पर धीरे,
धीरे मैं भी कभी, कभी मास्टरबेट करते वक़्त यह तस्वीर
आँखों के सामने रखती थी.
जैसे ही मैनें अपनी चाबी से साइड का दरवाज़ा खोला मुझे लगा
घर में कोई है, कुच्छ आवाज़ें सी आ रही थीं ऊपर की मंज़िल
से. ऊपर की मंज़िल में तो अब्बा रहते थे और आज सुबह जब मैं
घर से गयी थी तो प्रोग्राम यह था कि दोपहर की फ्लाइट से वो
और उनकी दोस्त सहला दिल्ली चले जायेंगे.
अब्बू ने अम्मी की मौत के बाद दूसरी शादी नहीं की थी. चालीस
साल के अब्बू अभी तक मेरे साथ ही रहते. अब्बू की कंपनी की काई
लरकियाँ घर आया करती थीं. अब्बू मेरे साथ भी काफ़ी खुले
थे - बातों में भी और रहने में भी. अक्सर बिना कप्रों के सो
जाते थे. बिल्कुल भी एंबरशसेद महसूस नहीं करते थे. इस बात
को
भी छिपाते नहीं थे की उनको मिलने लरकियाँ आती हैं और रात को
रुक भी जाती हैं. सब कुच्छ बिल्कुल नॉर्मल सा लगता था.
मैं भी सोचती थी के अब्बू की भी ऐसे ही जिस्मानी ज़रूरतें है
जैसी मैं महसूस करती थी. बात ही बात में एक दो बार उन्हों ने
मुझे समझा दिया था की आज़ादी का इस्तेमाल करते हुए अपनी
हिफ़ाज़त का ध्यान रखना लर्की क़ा ही काम है, अपने पार्ट्नर पर
मुनःस्सर नहीं करना चाहिए. मैं समझ गयी कि कह रहे थे कि
आइ हॅव टू टेक केर ऑफ माइसेल्फ.
इसी बीच मेरी जान पहचान सोहन और रिचा से हुई. पहले तो मैं
समझ नहीं सकी के दोनों आपस में कैसी फौश बातें करते हैं
पर धीरे, धीरे रिचा ने मुझे अपने खेलों में शामिल कर लिया.
शुरुआत रिचा ने ही की. तभी मुझे यह भी समझ आया की चूत के
खेल में कोई रिश्ता नहीं होता और कोई जेंडर नहीं होता.
प्लेषर
ईज़ आ मॅटर ऑफ फीलिंग, एमोशन, सॅटिस्फॅक्षन. अगर तुम्हारी क्लिट्टी
को
सहलाना है तो जीभ या उंगली मेल है या फीमेल, डज़ नोट
मॅटर.
भाई की है या किसी और की, चूत या क्लिट्टी इसमें इंट्रेस्टेड नहीं
होती.
अब आज जब मुझे घर में आवाज़ें आईं तो मुझे लगा के देखना
चाहिए कहीं कोई गारबर तो नहीं है. पर सीधे ऊपर जाने के
बदले मैनें कुच्छ आवाज़ें की जिस से जो भी हो वो सुन ले.
ऊपर के कमरे का दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई और सहला बाहिर
आ
कर सीरहियों पर आ कर बोली, "लैला, हमारी फ्लाइट कॅन्सल हो गयी
थी, अब रात को एक बजे जाएगी."
मैनें देखा की सहला करीबन नंगी थी. ऐसे वो पहली बार मेरे
सामने आई थी. उसके हाथ में एक तौलिया था जो उसनें कुच्छ
ऐसे
पकरा हुआ था की उसकी छ्चातियाँ और जांघें तो नंगी तीन,
पर
कमर ढाकी हुई थी. यह कहती, कहती सहला सीरहियाँ उतारने लगी.
मेरा ध्यान एकदम रिचा की तरफ गया. कहना मुश्किल था कौन
ज़्यादा खूबसूरत है, रिचा के मुममे ज़्यादा भरे हुए हैं बस.
सहला का सारा बदन ज़्यादा खूबसूरत था. उसकी चूचिया
थोरी सी अपने ही वज़न से ढालकी दिख रही थीं. चलते वक़्त थिरकन
का ऐहसास भर था. टाँगों के बीच में बाल नहीं थे, सो जब
उसका पैर नीचे की सिरही पर परता था तो चूत का एक होंठ
कुच्छ
खींच जाता था. इस तरह जैसे सहला सीरही उतर रही थी वैसे
उसकी चूत हल्के से खुल बूँद हो रही थी. एक बूँद सी बुन कर
नीचे
लटक रही थी. टाँगें छ्होटे केले के पेयर के च्चिले तन्ने की
तरह गोरी और चिकनी दिखाई दे रही थीं.
धीरे, धीरे मेरी आँखों में आंखाने डाले ये खूबसूरत जिस्म
नीचे उतर आया. मैं पत्थर की मूरत बने उसकी चाल, उसकी
थिरकन देख रही थी. मुझे होश तब आया जब उसने मेरे सामने
आकर बेधारक अपना पुंजा फैला कर मेरी जांघों के बीच इस
तरह रख दिया की मेरी सालिम फुददी उसके हाथ में थी. मेरी
@जीन्स और पॅंटी को चियर कर उसके हाथ का करेंट मेरी चूत पर
ज़ुल्म ढा गया. मुझे होश तब आया जब वो बोली.
"लैला, लगता है तू तो पहले ही गीली है, है ना? देख मेरी
उंगली
कैसे फिसल रही है"
और यह कहते, कहते उसने मेरी @जीन्स का ज़िपर खोल कर @जीन्स को
नीचे खींच दिया.
यह क्या हो रहा था? यह मेरे अब्बू की दोस्त, कहने की ज़रूरत
नहीं, मेरे अब्बू की चूत मुझ से ये सब कुच्छ कर रही थी! उसने
मेरी पॅंटी भी खींच कर उतार दी और मेरे सामने घुटनों पर
बैठ
कर मेरी फुददी पर अपना मुँह चिपका दिया, साथ ही उसकी जीभ की
सुई जैसी नोक अंदर घुस कर गाज़ाब धाने लगी. मेरी टाँगों में
जैसे जान नहीं रही. सहारा लेने के लिए मैनें टाँगें
कुच्छ
खोलीं और उसके सिर पर हाथ रक्खा. वज़न उसकी जीभ पर पारा
और
जीभ और अंदर घुस हाई.
"मुँह . . . मुँह . . . " करते हुए हू बोली:
"आह . . . आह . . . च . . . ओ . . . ओ . . . ओ . . . ओट चू . . .
स
. . . न . . . ए . . . क़ा मज़ा ही कुच्छ औट है"
अपना मुँह हटाते हुए उसने क्लिट्टी पर कुच्छ ऐसे जीभ लगाई कि
मैं एक दम चूत गयी.
सीधी खरी हो कर बोली, "लैला, तू बच्ची नहीं है. तू जानती
है
के मैं और तेरे अब्बू चुदाई करते हैं. तूनें यह भी देख लिया
की मैं तो एसी/डीसी बोथ हूँ. दोनों लाइन्स पर चलती हूँ. मेरे मन में
आज ये आया कि आज, फरीद के बर्तडे पर उसे एक प्रेज़ेंट दी जाए".
ओह, शिट, मुझे याद ही नहीं था. मेरा माथा भी ठंका. इसका
मतलब क्या है? ठीक है सोहन और रिचा ने मज़ाक में कई बार
इशारा किया था, पर मज़ाक तो मज़ाक ही होता है. लेकिन पेश्तर
इसके की मैं कुच्छ कह सकती सहला मुझे खींचती हुई ऊपर ले गयी.
मैं समझ गयी के मुश्किल वक़्त आने वाला है. उधर सोहन की
बातें भी दिमाग़ में तीन. सहला ने गीली चूत को फिर से
भूखा कर दिया था. एक थ्रिल सी मन में हुई. लाहौल बिल्ला
कुव्वत, दिमाग़ तो मन का गुलाम हो गया. आज अब्बू को प्रेज़ेंट दे
ही
दूं!
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कहानी रिश्तों की--1
आज एक अरसे के बाद सोहन को जी भर के चोदने का मौका मिला था.
वैसे तो हम जब भी मिलते थे जहाँ भी मिलते थे, चूमा चॅटी
तो करते ही थे, पर आधी अधूरी चुदाई में वो मज़ा कहाँ
आज जब मैं उसके घर पहॉंची थी तो घर में सोहन और उसकी
आपा ही थे. लगता था की दोनों आपस में शुरू हुए ही थे की मैं
जा टाप्की.
"आज तो मज़ा आ गया, अरसे के बाद हम तीनों अकेले मिले हैं"
रिचा आपा ने कहा.
"सच बताओ, रिचा, क्या वाक़ई खुश हो या मन में गालियाँ दे
रही हो कि दाल भात में मूसर चंद कहाँ से आ गयी?" मैं
बोली.
"लैला, मूसर चंद नहीं, तू तो गहरी कश्ती है सोहन के पतवार
के लिए" रिचा ने तहेदिल से कहा.
और उसके बाद सोहन के पतवार कभी मेरी नाओ में और कभी रिचा
की नाओ में चप्पू चलाया. हम लोग रुके तब जब तीनों थक कर
चूर हो गये और मैं वापस घर आने के लिए निकल आई.
मैं रास्ते में सोचती आ रही थी सोहन के मज़ाक के बारे में.
वो अक्सर करता रहता था कि मैं अपने अब्बू की तन्हाई दूर करने की
कोशिश क्यों नहीं करती. पहले तो मुझे बहोत अटपटा लगता था पर धीरे,
धीरे मैं भी कभी, कभी मास्टरबेट करते वक़्त यह तस्वीर
आँखों के सामने रखती थी.
जैसे ही मैनें अपनी चाबी से साइड का दरवाज़ा खोला मुझे लगा
घर में कोई है, कुच्छ आवाज़ें सी आ रही थीं ऊपर की मंज़िल
से. ऊपर की मंज़िल में तो अब्बा रहते थे और आज सुबह जब मैं
घर से गयी थी तो प्रोग्राम यह था कि दोपहर की फ्लाइट से वो
और उनकी दोस्त सहला दिल्ली चले जायेंगे.
अब्बू ने अम्मी की मौत के बाद दूसरी शादी नहीं की थी. चालीस
साल के अब्बू अभी तक मेरे साथ ही रहते. अब्बू की कंपनी की काई
लरकियाँ घर आया करती थीं. अब्बू मेरे साथ भी काफ़ी खुले
थे - बातों में भी और रहने में भी. अक्सर बिना कप्रों के सो
जाते थे. बिल्कुल भी एंबरशसेद महसूस नहीं करते थे. इस बात
को
भी छिपाते नहीं थे की उनको मिलने लरकियाँ आती हैं और रात को
रुक भी जाती हैं. सब कुच्छ बिल्कुल नॉर्मल सा लगता था.
मैं भी सोचती थी के अब्बू की भी ऐसे ही जिस्मानी ज़रूरतें है
जैसी मैं महसूस करती थी. बात ही बात में एक दो बार उन्हों ने
मुझे समझा दिया था की आज़ादी का इस्तेमाल करते हुए अपनी
हिफ़ाज़त का ध्यान रखना लर्की क़ा ही काम है, अपने पार्ट्नर पर
मुनःस्सर नहीं करना चाहिए. मैं समझ गयी कि कह रहे थे कि
आइ हॅव टू टेक केर ऑफ माइसेल्फ.
इसी बीच मेरी जान पहचान सोहन और रिचा से हुई. पहले तो मैं
समझ नहीं सकी के दोनों आपस में कैसी फौश बातें करते हैं
पर धीरे, धीरे रिचा ने मुझे अपने खेलों में शामिल कर लिया.
शुरुआत रिचा ने ही की. तभी मुझे यह भी समझ आया की चूत के
खेल में कोई रिश्ता नहीं होता और कोई जेंडर नहीं होता.
प्लेषर
ईज़ आ मॅटर ऑफ फीलिंग, एमोशन, सॅटिस्फॅक्षन. अगर तुम्हारी क्लिट्टी
को
सहलाना है तो जीभ या उंगली मेल है या फीमेल, डज़ नोट
मॅटर.
भाई की है या किसी और की, चूत या क्लिट्टी इसमें इंट्रेस्टेड नहीं
होती.
अब आज जब मुझे घर में आवाज़ें आईं तो मुझे लगा के देखना
चाहिए कहीं कोई गारबर तो नहीं है. पर सीधे ऊपर जाने के
बदले मैनें कुच्छ आवाज़ें की जिस से जो भी हो वो सुन ले.
ऊपर के कमरे का दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई और सहला बाहिर
आ
कर सीरहियों पर आ कर बोली, "लैला, हमारी फ्लाइट कॅन्सल हो गयी
थी, अब रात को एक बजे जाएगी."
मैनें देखा की सहला करीबन नंगी थी. ऐसे वो पहली बार मेरे
सामने आई थी. उसके हाथ में एक तौलिया था जो उसनें कुच्छ
ऐसे
पकरा हुआ था की उसकी छ्चातियाँ और जांघें तो नंगी तीन,
पर
कमर ढाकी हुई थी. यह कहती, कहती सहला सीरहियाँ उतारने लगी.
मेरा ध्यान एकदम रिचा की तरफ गया. कहना मुश्किल था कौन
ज़्यादा खूबसूरत है, रिचा के मुममे ज़्यादा भरे हुए हैं बस.
सहला का सारा बदन ज़्यादा खूबसूरत था. उसकी चूचिया
थोरी सी अपने ही वज़न से ढालकी दिख रही थीं. चलते वक़्त थिरकन
का ऐहसास भर था. टाँगों के बीच में बाल नहीं थे, सो जब
उसका पैर नीचे की सिरही पर परता था तो चूत का एक होंठ
कुच्छ
खींच जाता था. इस तरह जैसे सहला सीरही उतर रही थी वैसे
उसकी चूत हल्के से खुल बूँद हो रही थी. एक बूँद सी बुन कर
नीचे
लटक रही थी. टाँगें छ्होटे केले के पेयर के च्चिले तन्ने की
तरह गोरी और चिकनी दिखाई दे रही थीं.
धीरे, धीरे मेरी आँखों में आंखाने डाले ये खूबसूरत जिस्म
नीचे उतर आया. मैं पत्थर की मूरत बने उसकी चाल, उसकी
थिरकन देख रही थी. मुझे होश तब आया जब उसने मेरे सामने
आकर बेधारक अपना पुंजा फैला कर मेरी जांघों के बीच इस
तरह रख दिया की मेरी सालिम फुददी उसके हाथ में थी. मेरी
@जीन्स और पॅंटी को चियर कर उसके हाथ का करेंट मेरी चूत पर
ज़ुल्म ढा गया. मुझे होश तब आया जब वो बोली.
"लैला, लगता है तू तो पहले ही गीली है, है ना? देख मेरी
उंगली
कैसे फिसल रही है"
और यह कहते, कहते उसने मेरी @जीन्स का ज़िपर खोल कर @जीन्स को
नीचे खींच दिया.
यह क्या हो रहा था? यह मेरे अब्बू की दोस्त, कहने की ज़रूरत
नहीं, मेरे अब्बू की चूत मुझ से ये सब कुच्छ कर रही थी! उसने
मेरी पॅंटी भी खींच कर उतार दी और मेरे सामने घुटनों पर
बैठ
कर मेरी फुददी पर अपना मुँह चिपका दिया, साथ ही उसकी जीभ की
सुई जैसी नोक अंदर घुस कर गाज़ाब धाने लगी. मेरी टाँगों में
जैसे जान नहीं रही. सहारा लेने के लिए मैनें टाँगें
कुच्छ
खोलीं और उसके सिर पर हाथ रक्खा. वज़न उसकी जीभ पर पारा
और
जीभ और अंदर घुस हाई.
"मुँह . . . मुँह . . . " करते हुए हू बोली:
"आह . . . आह . . . च . . . ओ . . . ओ . . . ओ . . . ओट चू . . .
स
. . . न . . . ए . . . क़ा मज़ा ही कुच्छ औट है"
अपना मुँह हटाते हुए उसने क्लिट्टी पर कुच्छ ऐसे जीभ लगाई कि
मैं एक दम चूत गयी.
सीधी खरी हो कर बोली, "लैला, तू बच्ची नहीं है. तू जानती
है
के मैं और तेरे अब्बू चुदाई करते हैं. तूनें यह भी देख लिया
की मैं तो एसी/डीसी बोथ हूँ. दोनों लाइन्स पर चलती हूँ. मेरे मन में
आज ये आया कि आज, फरीद के बर्तडे पर उसे एक प्रेज़ेंट दी जाए".
ओह, शिट, मुझे याद ही नहीं था. मेरा माथा भी ठंका. इसका
मतलब क्या है? ठीक है सोहन और रिचा ने मज़ाक में कई बार
इशारा किया था, पर मज़ाक तो मज़ाक ही होता है. लेकिन पेश्तर
इसके की मैं कुच्छ कह सकती सहला मुझे खींचती हुई ऊपर ले गयी.
मैं समझ गयी के मुश्किल वक़्त आने वाला है. उधर सोहन की
बातें भी दिमाग़ में तीन. सहला ने गीली चूत को फिर से
भूखा कर दिया था. एक थ्रिल सी मन में हुई. लाहौल बिल्ला
कुव्वत, दिमाग़ तो मन का गुलाम हो गया. आज अब्बू को प्रेज़ेंट दे
ही
दूं!
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